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मस्जिद, मदरसा व दरगाह में मनाया गया ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ का उर्स-ए-पाक


गोरखपुर, उत्तर प्रदेश। मदरसा क़ादरिया तजवीदुल क़ुरआन लिल बनात अलहदादपुर, मदरसा दारुल उलूम हुसैनिया दीवान बाज़ार, गुलरिया जामा मस्जिद, नूरी मस्जिद तुर्कमानपुर, मदीना मस्जिद रेती चौक, सब्जपोश हाउस मस्जिद जाफ़रा बाज़ार, मकतब इस्लामियात चिंगी शहीद तुर्कमानपुर, दरगाह हज़रत मुबारक खां शहीद नार्मल,  मस्जिद खादिम हुसैन तिवारीपुर, नूरी जामा मस्जिद अहमदनगर चक्शा हुसैन आदि में विश्व प्रसिद्ध सूफी संत हज़रत ख़्वाजा मोईनुद्दीन हसन चिश्ती अलैहिर्रहमां (ख़्वाजा ग़रीब नवाज़) का 810वां उर्स-ए-पाक मंगलवार को अकीदत के साथ मनाया गया। क़ुरआन ख़्वानी हुई। नात व मनकबत पेश की गई। कुल शरीफ की रस्म अदा कर मुल्क में अमनो, शांति, तरक्की व भाईचारगी की दुअा मांगी गई। नूरी मस्जिद तुर्कमानपुर व दरगाह हज़रत मुबारक ख़ां शहीद पर लंगर बांटा गया। अकीदतमंदों ने उलमा-ए-किराम की जुब़ानी ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ की ज़िंदगी के वाकयात, करामात, तकवा व परहेजगारी के बारे में सुना। 

मदीना मस्जिद में मुफ्ती मेराज अहमद क़ादरी ने कहा कि हज़रत ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की अजमेर स्थित दरगाह सिर्फ इस्लामी प्रचार का केंद्र ही नहीं बनी, बल्कि यहां से हर मजहब के लोगों को आपसी प्रेम का संदेश मिला है। इसकी मिसाल ख़्वाजा के पवित्र आस्ताने में राजा मानसिंह का लगाया चांदी का कटहरा है, वहीं ब्रिटिश महारानी मैरी क्वीन का अकीदत के रूप में बनवाया गया वुजू का हौज है। 

सब्जपोश हाउस मस्जिद में हाफ़िज़ रहमत अली निज़ामी ने कहा कि ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ बड़े ही नर्म दिल खुश मिज़ाज़ और मिलनसार थे। आपको गुस्सा नहीं आता था। ज़िंदगी बहुत सादा थी। सख़ावत आपके खानदान की खासियत थी। 14 साल की उम्र में पिता का साया सर से उठ गया और इसके कुछ माह बाद ही मां का भी साया सर से उठ गया। पिता की तरफ से आपको विरासत में एक पनचक्की और एक बाग़ मिला। जिससे आपकी गुज़र बसर होती थी। एक दिन आपके बाग में एक दरवेश हज़रत इब्राहीम कन्दोज़ी आए ग़रीब नवाज़ ने उन्हें अंगूर का एक गुच्छा तोड़कर पेश किया। हज़रत इब्राहीम ग़रीब नवाज़ को देखकर समझ गए कि इन्हें बस एक रहनुमा की तलाश है। जो आज एक बाग़ को सींच रहा है कल वो लाखों के ईमान की हिफाज़त करेगा। आपने फल का टुकड़ा चबाकर ग़रीब नवाज़ को दे दिया। जैसे ही ग़रीब नवाज़ ने उसे खाया तो दिल की दुनिया ही बदल गयी। हज़रत इब्राहीम तो चले गए मगर दीन का जज़्बा ग़ालिब आ चुका था। आपने बाग़ को बेचकर गरीबो में पैसा बांट दिया। खुरासान से समरक़न्द फिर बुखारा, इराक पहुंचे और अपनी तालीम मुकम्मल की। आपके पास जो कुछ नज़राना तोहफा आया करता था वह सब अल्लाह के नाम पर जरूरतमंदों को दे दिया करते थे। 

उर्स में आलिमा शबनम फातिमा, शहाना परवीन, आलिमा महजबीन ख़ां, मेहरुन्निसा खातून, इल्मा नूर, जिक्रा फातिमा, सना परवीन, अलीना फातिमा, सामिया खानम, शाइमा अंसारी, आयशा बानो, शबीहा बानो, निदा परवीन, आबिदा बानो, मुफ्ती अख्तर हुसैन (मुफ्ती-ए-शहर), कारी सरफुद्दीन क़ादरी, मास्टर मोहम्मद आज़म, हाफ़िज़ एमादुद्दीन, सैफ अली, हाफ़िज़ अलकमा, शहीद गुलाम गौस, मो. अली, कारी मोहम्मद अनस रज़वी, मुफ्ती मोहम्मद अज़हर शम्सी (नायब काजी), मौलाना मोहम्मद असलम रज़वी, अलाउद्दीन निज़ामी, मौलाना शेर मोहम्मद अमजदी, शाबान अहमद, मनोव्वर अहमद, कारी बदरे आलम, मुफ्ती मेराज, हाफ़िज़ रहमत अली, मुफ्ती मुनव्वर रज़ा, सद्दाम हुसैन, हाफ़िज़ नज़रे आलम, कारी अफ़ज़ल बरकाती, मो. नसीम खान, मो. हाशिम, इरफ़ान, मौलाना सैफ अली, वकील अहमद, वसीम अहमद, जलालुद्दीन, अरीब अहमद, मौलाना शादाब अहमद, मो. दारैन, मो. दानिश, नूर अहमद आदि ने शिरकत की।

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